Friday 17 June 2016

मुकम्म़ल इश्क़ का किस्सा बना दो मेरे माज़ी को
फरेबी लोग आकर चार बाते जोड़ जाते हैं
मैं बीते हर कदम आँखों में अपना रब छुपाता हूँ
वो ज़ालिम बुतशिक़न शादाब बुत भी तोड़ जाते हैं

© Siddharth Priyadarshi

Saturday 28 May 2016

शिमला डायरी से एक पुरानी ग़जल--

सोच रहे हैं तेरे गम को सजदे कर मेहमान करें
आँखों से कर लें मक्कारी,अश्कों का सामान करें

पश्मीने की चादर जैसा ख़ल्क मिलेगा ऐ साहिब !
हम तो लफ्ज लिए बैठें हैं सुनने का फरमान करें

वक्त खड़ा फिर दरवाजे पर माँग रहा है हाथ मेरा
विदा में तेरा हाथ उठे तो चलने का अरमान करें

कुछ जायज़ नाजायज़ वजहें भारी हैं इन कंधों पर
फिर भी कोशिश कर के लो तेरा जीना आसान करें
कैसे, किसकी बाँह टटोलें रिश्तों के अंधियारे में
नज्र से रिसते लहू को रोकें नजर में रोशनदान करें

© Siddharth Priyadarshi
    

Saturday 21 May 2016

जलवा-ए-गुल, ज़ौक-ए-तमाशा आज रहने दे ख़ुदा
इसकी नहीं दरकार अब तो यार जलवागार है

रात भर जगते रहे आँखों में बाँधे टकटकी
बह चला चौथे पहर उम्मीद का अशआर है

सामने बेटा पड़ा है मुफलिसी को ओढ़कर
और कहते लोग बूढ़ा आजकल बीमार है

तुम मुझे मुजरिम बताकर साथ लाना जुर्म मेरा
रंजिशाना कह न दूँ यह कातिलों का यार है

इश्क़ की पहली ही सीढ़ी पर गिरे हो माहताब
दम तो फूलेगा समंदर में यही तो प्यार है

एक नए तेवर में हैं हर्फों की ये सरगोशियां
रूक्न की दुश्वारियों में अक्स शहरयार है

© Siddharth Priyadarshi
    

Sunday 15 May 2016

पुराने दर्द की देशी दवाई
वो बढ़ता मर्ज और ये बेहयाई
सितम के इंतेहा की रात है ये
किसी का जुर्म औ' मेरी सफाई

कलम कागज़ में छिड़ती ये लड़ाई
मेरी ग़जलें भी देती हैं दुहाई
समझ लो आज तक जिंदा है दिल में
किसी की राख से भी आशनाई

सिफर जोडूँ तो बनता है दहाई
इसी की तर्ज पर दूँ रहनुमाई
तुम्हारी रूह के ताखों पे रख कर होंठ अपने
लिखूँ खुसरो की वह ‘दीनी' रूबाई

 © Siddharth Priyadarshi

Thursday 5 May 2016

कागज पर कुछ उल्टे तिरछे
काले अक्षर टाँक लो
फिर बेहूदे विम्बों और चलचित्रों से प्रतिविम्बों की
बासी धूल फाँक लो
स्त्री नाभि की गहराई से
अपनी गलीच मानसिकता का चाँद उगा दो
या नोची गई किसी बेटी का जिस्म
शब्दों की मीठी चाशनी में डुबा दो
प्रेम को बेशक दे दो
जिस्मफरोशी का नाम
माँ की ममता को भी लिख दो
दबा हुआ स्त्री प्रतिमान
किसी हल्कू की व्यथा कथा पर
प्रेमचंद को सामंती कह दो
शिव-पार्वती आख्यान को भी
भगवा आतंकी कह दो
पर शेष सुकोमल बनी रहेगी
तुलसी सूर कबीर की वाणी
महाप्राण हो या प्रसाद हो
धन्य रहेगी वीणापाणी
भ्रमित विमर्शों के गलियारे
इस वमन में कुंठित मिलें जहाँ
वहीं सोचना इस कविता में
काव्य तत्व है शेष कहाँ !

अथ श्री ‘फैशनेबल नई कविता' प्रथम अध्याय: समाप्तम्.....

© Siddharth Priyadarshi
   

Sunday 1 May 2016

एक कहानी यह भी  

पैंतालिस डिग्री सेल्सियस की झुलसाने वाली गरमी, सिर पर जलता हुआ एक करोड डिग्री सेल्सियस का सूरज, सूखे प्यासे और फटे होंठ, पैरों में टूटी चप्पलें, चौवालीस पैबंद लगी कमीज़ और सिर पर मैला सा अंगौछा !!!
बेचारा गरीब रिक्शेवाला धौंकनी की तरह चलती साँसे थामकर अपने सूखे होठों को जीभ से तर करता है.
--टैगोर टाउन चलोगे ?
--चलेंगे बाबूजी
--िकतना लोगे ?
--चालीस रूपया पड़ेगा बाबूजी
--का बकैती है में ! टैगोर टाउन का चालीस रूपया होता है !
--घाम बहुत है भइया. सगरी देह झुलसाय जाती है.
--अमे रहन देव. एतना भी घाम नही ना. (मैं मन ही मन कुदरत के कहर को कोसता हुआ रिक्शेवाले में जमकर मोल-भाव करने के मूड में हूँ)
--तीस देंगे. ढ़लाने-ढ़लान तो हय पूरे रास्ते
--पैंतीस दै देना भैया
-- ना ना..रेट न िबगाड़ो. तीस से ज्यादा न देंगे
रिक्शेवाले ने कातर निगाहों से मुझे देखा. आसपास तीन रिक्शे वाले और खड़े हैं . मतलब कि बैकफुट पर वही है, हमें पूरा इत्मीनान है. इस भयानक दोपहरी में पूरा शहर घरों में बंद है. सवारियाँ तो हैं नहीं. कोई न कोई तो जाएगा ही तीस रूपए में !

-- ठीक है भैया..चिलए.
 मैं विजयी मुस्कान लिए दोस्त की एसी गाड़ी से उतरता हूँ. उतरते ही लगा जैसे पूरे बदन में आग मली जा रही हो. मैं फटाफट आँखों पर काला चश्मा चढ़ाता हूँ जो किसी महंगे स्टोर से २००० रू का खरीदा हुआ था, बिना मोलभाव किए. चेहरे को गीले तौलिए से बाँधता हूँ. पास की दुकान से गला तर करने और लू से बचने के लिए स्प्राइट की आधा लीटर की बोतल खरीदता हूँ.
-- कस में, ए पे तो पैंतीस रूपया िलखा है तो चालीस काहे माँग रहे हो ? मैने पूरी ठसक से दुकानदार से शिकायत की..
-- बकैती न झाड़ो, कम्पनी हमका ठंडा करै क पइसा नय देत...बर्फ लगावा है, ओका दाम कौन देइगा ? उपर से सप्लाई भी कम है. लेना है तो लो नहीं तो फूटो इहाँ से. दुकानदार ने एक मिनट में मेरी न्यायप्रियता सड़क पर बिखेर दी.

मौके की नज़ाकत देख मैने दुकानदार को चुपचाप चालीस रूपए दिए, अपना दोगलापन वापस अपनी जेब में रखा, अभिजात्यपन के चश्मे को ठीक किया और रिक्शे पर जा बैठा. आदमी के द्वारा आदमी को खींचे जाने का यह दृश्य मुझे हरगिज आहत नहीं करेगा. रिक्शे वाला कमर उठाकर मुझ पचहत्तर  किलो की काया को खींचे जा रहा है. मैं उससे तेज चलने को कहता हूँ. वह पसीने से तर चेहरे को पोंछता फीकी मुस्कान लिए मुझे देखता है. इधर मैं मन ही मन भुनभुना रहा हूँ--किस मरियल को पकड़ लिया. देर करा देगा ये. धूप में झुलस ही जाऊंगा आज तो. बहुत काम है. पहले तो घर जाकर मजदूरों की दुर्दशा पर धाँसू लेख पोस्ट करना है फेसबुक पर. खूब लाईक्स उठाने हैं आज. रिक्शे पर बैठे-बैठे उस लेख की रूप रेखा बनाने की कोशिश करता हूँ-- छोड़ो यार, घर जाकर आराम से एसी चलाकर बैठैंगे तब सोचेंगे. मैं शीतल पेय की चार घूँट हलक के नीचे उतारता हूं. पैडल मारने वाले का खून भाप बनकर उड़ रहा है पर मुझे ठंडक मिलती जा रही है...

© Siddharth Priyadarshi

Monday 21 March 2016

तुम्हारे पास रह कर इस कदर आबाद होता हूँ
महीने माघ में संगम का इलाहाबाद होता हूँ

हमारा इश्क़ गोया है लिखावट ताज़ के जैसी
बनो मुमताज़ तुम, मैं भी अमीनाबाद होता हूँ

तुम्हारे आँख से मोती की लड़ियां जब भी गिरती हैं
मैं जमुना के कगार-ओ-फाग सा बर्बाद होता हूँ

करीने से सजी है आज़कल ये मेरी दुनिया यूँ
तुम्हारे हुस्न के जलवों से जिंदाबाद होता हूँ

तू है गुलजार मेरे फज्र से संध्या के वंदन तक
मैं रब से राम तक सैयद अली कुर्बाद होता हूँ

© Siddharth Priyadarshi

Thursday 3 March 2016

उसके अरमानों की चीजे़ं, हैं उसकी फरमाइश में
मोल सको तो इश्क़ तुम्हारा, जीतेगा अज़माइश में

सपने हैं; बस कीमत इनकी अंधरों तक कायम है
खुली आँख पुतली पर ये, बिकते बीस या बाईस में

कैसे कैसे रंग चढ़े हैं, अशआरों की सोहबत में
कलम से नीले मोती गिरते, मकतों की पैदाइश में

© Siddharth Priyadarshi

Wednesday 2 March 2016



मृगतष्णा सी प्यास है अपनी, नित बढ़ती अभिलाष है
गज भर की है अपनी धरती, अंगुल भर आकाश है

हंसना-रोना, खोना-पाना जीवन के हैं रंग सभी
खुशियों के पन्नों पर हरदम क्यों लिखता वो ‘काश' है !

जिधर भी देखो सब दौड़े हैं, अपनी गागर भरने को
घूंट घूंट पीकर देखो तो  चार अंजुलि की प्यास है

अहले दिल की महफिल में है अब कैसा यह वीराना
आज भले ही तू न हो, फिर भी तेरा अहसास है

बेशक दस्तरखान बिछा है, पर फस्लें तो पकने दो
मत आना तुम मेहमाँ बनकर, कल परसों उपवास है

©Siddharth Priyadarshi

Thursday 25 February 2016

दूसरों को आईना दिखाने से पहले अपने चेहरे की गंदगी उसमें ज़रूर देख लेनी चाहिए--है न !!

जवाब आए तो कुछ यूँ आए
अब न तू आए; न तेरी बू आए !

तुझे रक्खा है हाशिए जैसा
हर्फ के बीच में तू क्यूँ आए

© Siddharth Priyadarshi

Monday 22 February 2016

मेरी तासीर से वाकिफ़ नहीं हो यार तुम मेरे
मैं जुगनूँ हूँ, अंधेरों में भी कितना साफ दिखता हूँ
मेरे अशआ़र रोशन हैं, मेरे हाथों की रोटी में
मैं लफ़्जों की द़ुकानो पर तभी शफ्फ़ाक बिकता हूँ

©Siddharth Priyadarshi

Friday 19 February 2016

मतलब के रिश्तों पर सब कुछ बे-मतलब सा लिखते हो..
बेशक आँखें छोटी हैं ! पर आर-पार तुम दिखते हो...

© Siddharth Priyadarshi

Thursday 11 February 2016

प्रेम-----मेरी नजर में

वैलेनटाइन्स वीक में मिज़ाज थोड़ा दार्शनिक हो रहा है. लम्बी पोस्ट है. धैर्य हो तभी पढ़िएगा. वैसे तो यह पोस्ट तेरह फरवरी को होनी थी पर कल से भयंकर ज्वर चढ़ने वाला है फेसबुक को. हम सोचे पहले ही अपना ताप निकाल लेते हैं.

मनुष्य जब पहली बार प्रेम करता है तो देवता होता है. दूसरी बार प्रेम करता हैनतो मनुष्य होता है. और तीसरी बार....! तीसरी बार वह प्रेम करता ही नहीं. प्रेम को लेकर मेरी कोई पूर्व स्थापना नहीं है. स्थापनाएं वैसे भी रूढ़ और प्राय: अस्थाई होती हैं. प्रेम चूकि हमारे नितांत निजी जीवन के अंतरंग अहसासों का मसला है इसलिए मैं उसे लेकर बहुत व्यवहारिक और दुनियादार होने का कायल भी नहीं हूँ. अपने अनुभव से जो सीखा है उसी आधार पर कहता हूँ कि प्रेम का हर रूप वास्तविक होता है. चाहे वह भीतर धीमें धीमें सुलगता हो या आग की लपटों की तरह सब कुछ जलाकर राख़ कर देने की ताकत रखता हो. इसका हर रूप उच्चतम है. प्रेम संबंधों में दुनियादारी और चतुराई नहीं होती, हिसाब किताब नहीं होता. अर्थशास्त्र और गणित कम रहता है. ध्यान दीजिएगा, मैं प्रेम संबंधों की बात कर रहा हूँ; टाइमपास ‘ज़रूरतों' की नहीं. उनकी तो बुनियाद ही ऐसे मानदण्डों पर होती है. प्रेम विज्ञान नहीं है जिसे उद्धरणों की प्रयोगशाला में साबित किया जा सके. यह विशुद्ध रूप से किसी के लिए या किसी के बिना जीने और मरने की कला है. देह इसमे एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. एक सहज स्वाभाविक आकर्षण से देह संबंध तक की यात्रा में प्रेम धीरे धीरे विकसित होता रहता है. प्रेमी को पाने की एकनिष्ठता इस कदर जुनूनी बनाती है कि पहले से चले आ रहे पारिवारिक रिश्ते भी पीछे छूटने लगते हैं. समझना होगा कि प्रेम का मतलब देह से इन्कारी होना नहीं ब्लकि देह से ग़ुजरकर इसके आर पार जाना है. लैला-मजनू से लेकर पारो देवदास सभी उदाहरण अगर देह तक ही तुष्ट हो जाते तो क्या ये कथाएं बनतीं ? ले लेता देवदास पारो की देह, बस कहानी ख़त्म !!

सच है और मैं भी सिद्धांत रूप में सहमत हूँ कि प्रेम को आत्महन्ता, आत्मनाशी नहीं बनना चाहिए, दुखदायी नहीं होना चाहिए. यह भी सही है कि प्रेम का  उच्चतम रूप, उसकी सत्ता और सार्थकता उसके आवेग की उन्मादी अभिव्यक्ति में है. पर उन्माद कभी भी पूज्य और आदर्श नहीं  हो सकता. उन्माद हमेशा नाश का कारण बनता है इसलिए यह महान नहीं हो सकता. अत: प्रेम को सभी प्रकार के अतिरेकों से मुक्त होकर सहज भाव की तरह जीवन में रहना चाहिए. प्रेम किसी के नाश का कारण नहीं बनना चाहिए. यह मनुष्य को विराट बनाने वाली भावना है यदि उसको किसी भी अतिरेक से रहित, सम्यक और संतुलित रूप में अन्य भावनाओं के साथ स्थान दिया जाय. थोड़ी उदासी, थोड़ा दुख, थोड़ा सुख, कुछ स्मृतियाँ, कुछ स्वपन, कुछ देह, कुछ आत्मा, कभी दृश्य, कभी अदृश्य, कभी मुख़र, कभी मौन-----ऐसा गुँथा बुना प्रेम ही स्थाई और दीर्घायु होता है. प्रेम में लोग पागल तक हो जाते हैं या करार दिए जाते हैं. यह भी बुरा नहीं है. क्योंकि प्रेम मानता है कि संतुलित दृष्टि और परिपक्व जीवन का पालन वह करें जिन्हें समाज रचना है; प्रेम तो मनुष्य रचता है.  प्रिय या प्रिया से बिछड़ने के बाद कम अवधि के लिए या आजीवन शांत और ठंडा अकेलापन चुनना भी प्रेम का एक रंग है.

आपके सब के जीवन में ऐसा प्रेम अवश्य आए, यह मेरी शुभकामना है. मेरे जीवन में मरून होते ‘नीले स्वेटर' का यह प्रेम शाश्वत बना रहे, ऐसी दुआ आप करें.
Wish You All very Happy Valentine's Day.

© Siddharth Priyadarshi