Saturday 28 May 2016

शिमला डायरी से एक पुरानी ग़जल--

सोच रहे हैं तेरे गम को सजदे कर मेहमान करें
आँखों से कर लें मक्कारी,अश्कों का सामान करें

पश्मीने की चादर जैसा ख़ल्क मिलेगा ऐ साहिब !
हम तो लफ्ज लिए बैठें हैं सुनने का फरमान करें

वक्त खड़ा फिर दरवाजे पर माँग रहा है हाथ मेरा
विदा में तेरा हाथ उठे तो चलने का अरमान करें

कुछ जायज़ नाजायज़ वजहें भारी हैं इन कंधों पर
फिर भी कोशिश कर के लो तेरा जीना आसान करें
कैसे, किसकी बाँह टटोलें रिश्तों के अंधियारे में
नज्र से रिसते लहू को रोकें नजर में रोशनदान करें

© Siddharth Priyadarshi
    

No comments:

Post a Comment