Thursday 5 May 2016

कागज पर कुछ उल्टे तिरछे
काले अक्षर टाँक लो
फिर बेहूदे विम्बों और चलचित्रों से प्रतिविम्बों की
बासी धूल फाँक लो
स्त्री नाभि की गहराई से
अपनी गलीच मानसिकता का चाँद उगा दो
या नोची गई किसी बेटी का जिस्म
शब्दों की मीठी चाशनी में डुबा दो
प्रेम को बेशक दे दो
जिस्मफरोशी का नाम
माँ की ममता को भी लिख दो
दबा हुआ स्त्री प्रतिमान
किसी हल्कू की व्यथा कथा पर
प्रेमचंद को सामंती कह दो
शिव-पार्वती आख्यान को भी
भगवा आतंकी कह दो
पर शेष सुकोमल बनी रहेगी
तुलसी सूर कबीर की वाणी
महाप्राण हो या प्रसाद हो
धन्य रहेगी वीणापाणी
भ्रमित विमर्शों के गलियारे
इस वमन में कुंठित मिलें जहाँ
वहीं सोचना इस कविता में
काव्य तत्व है शेष कहाँ !

अथ श्री ‘फैशनेबल नई कविता' प्रथम अध्याय: समाप्तम्.....

© Siddharth Priyadarshi
   

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