Thursday 9 February 2017

"कहानी मेरे आगे"

शाम 6 बजे ऑफिस छूटने के बाद की भारी भीड़ में 17 मिनट के इंतज़ार के बाद आई यह पहली मेट्रो ट्रेन थी. दरवाज़े खुलने के 6 सेकेंड बाद सारी सीटें फुल और अगले ही पल खड़े होने का ठिकाना ढूंढते लोग. ठसाठस भरी मेट्रो ट्रेन, दरवाज़े के पास वाले पैसेज में बलिष्ठ देह संरचनाओं के बीच 3 कमनीय युवतियां और अचानक मेहरबां हुई अपनी किस्मत पे इतराते वह चार लड़के !

अनाउंसमेंट हुआ - "दरवाजों से हटकर खड़े हों"

अपने शरीर को दरवाज़े से बचाने के क्रम में कमनीय काया ने खुद को थोड़ा पीछे किया. इधर उसके खुले बाल पीछे खड़े एक 'भइया जी' के कन्धों पे झूल गए और किसी अनोखी 'फील' से भइया जी का रोम रोम तृप्त हो उठा. युवती कानों में इयर प्लग लगाए किसी गीत में लीन थी और भइया जी सबसे नज़रें चुराकर युवती के बालों से लेकर नितम्बों तक उसके जिस्म को आँखों से सहलाने में तल्लीन थे. कभी ये युवती की नंगी सुराहीदार गर्दन को निहारते; कभी उसके बालों की खुशबू को 3 इंच की दूरी से अपने नथुनों में भरकर घर तक ले जाने की चेष्टा करते हैं. भइया जी तीन स्टेशन बाद यह सौभाग्यशाली यात्रा समाप्त कर ट्रेन से उतर गए.

ये तीनो युवतियां बेपरवाह और बेलौस थी. मेट्रो के इस ठेलम-ठेल के बीच सफ़र को 'सफर' करना उनके रोजमर्रा की दिनचर्या में था. वृहन महानगरीय संस्कृति की परिभाषा में स्त्री- पुरुष के बीच घटते सामाजिक फ़ासले की स्वीकार्यता और बढ़ती यौन कुंठाओं की जुगुप्सा ने इन लड़कियों को नफ़ा और नुक्सान दोनों पहुचाया है.

फ़िलहाल, ट्रेन चलती जा रही है. स्टेशनों के बाईं ओर स्थित प्लेटफार्म पर ट्रेन रूकती है. लोग उतरते और चढ़ते जा रहे हैं पर दाहिने दरवाजे के इस सुरक्षित कोने में दृश्य वैसा ही है जैसा कि उपर की पंक्तियों में बताया गया है.
ख़ैर; अब दूसरी रूपसी पर नज़र डालते हैं...

दिल्ली शहर के मौसम से सर्दी उतार पर है. फिर भी सुबह शाम टी-शर्ट में घूमना दिलेरी का काम है. जिम में पसीना बहाकर बनाई गई मुग्दड़ जैसी बाँहों को काली और सफ़ेद टी शर्ट में एक्सपोज़ करते दो देसी बन्दों के निहायत ही घटिया और हर बात में एक दूसरे की 'भैंण' को समर्पित क्रियात्मक शब्दों के बीच एक लकदक अत्याधुनिका बाला ! दिल्ली एनसीआर में भैंणें  ( पढ़ें--बहनें ) बड़ी सस्ती बिकती हैं; हर बात में बिकती हैं, चाहे किसी की भी हों. ट्रेन की छत से लटकते स्टैंडिंग सपोर्ट को पकड़ने के क्रम में दोनों देसी ब्वॉयज़ ने अपने कन्धों के बीच युवती को लगभग जकड़ रखा है. इधर परेशान युवती बार-बार; इधर-उधर शिफ़्ट होकर उन्हें अपने होने के एहसास दिलाने की प्रक्रिया में उन्हें अपनी छुवन का और आनंद  दे रही थी. और दोनों भाई लोग कस के आनंद ले रहे हैे. देखने वालों के नज़रिये में यहाँ गलती लड़की की ही है. ट्रेन में महिला डिब्बा होने के बावजूद वह सामान्य डिब्बे में चढ़ गई है, ज़रूर यह भी लोगों के बीच दबकर मज़े लेना चाहती होगी. कपडे भी बड़े मॉडर्न टाइप हैं, मतलब यह ********.
इतने में एक देसी ब्वॉय का हाथ नीचे की ओर गया और युवती अचानक चिहुँक उठी.

" एक्सक्यूज़ मी ! विल यू प्लीज स्टैंड प्रॉपरली !"
नम्र आवाज़ में की गई इस याचना का उत्तर उतनी ही फटी आवाज़ में आता है----
"के घणीं तकलीफ़ हो राखी है मैडम. बाक्की लोग्ग भी तो खाडे हैं !"

युवती ने निराशा में सिर को हलके से हिलाया और वापस वैसे ही खड़ी हो गई. अब उस लड़के का हाथ बार बार नीचे जा रहा है. युवती अब मौन है क्योंकि उसे भी एहसास हो गया कि अगले दस या बीस मिनट तक ये ज़लालत उसे झेलनी ही है. दोनों लड़कों की आपसी फुसफुसाहट और मुखर हो उठती है------
"देक्ख, केसो सिकुड़ी सी खडी है"
"भैंण** ! लाग रहा प्रपोज़ल डे के दिन साड़े ब्वायफ़्रेंड ने इसे अपणां प्रपोजल थाम दिया.
"खें खें खें......"
" भैंण की ** ! बाहें तो देख, मखमल सी हो राखी हैं"
" भाई, मेने तो टाँगे लेग-इन के ऊपर से हौलू से सहला दी."

आसपास के चार छह लोग ये जुगुप्सा जगाने वाली फुसफुसाहट सुन रहे हैं. उनकी बातों से कुछ के चेहरों पर मुस्कराहट है तो कुछ के चेहरों पर क्षोभ के भाव हैं. ये क्षोभ वाले चेहरे देखकर संतोष हुआ कि लोगों में 'अभाव' का 'भाव' भले हो; 'भाव' का 'अभाव' नहीं हैं.

अब कहानी के तीसरे पटल को देखिये.
जब उपर के दोनों दृश्य फिल्माए जा रहे हैं, उस वक़्त सिद्धार्थ बाबू  ट्रेन डिब्बे के इस दायें दरवाज़े से सट कर बनाये गए उस खाली स्थान का लुफ़्त उठा रहे है जो भीड़ में खड़े होने के लिहाज़ से सर्वोत्तम है. सबसे ऊपर जिस चौथे लड़के का जिक्र किया गया है, ये वही हैं. हाँ, इनके साथ किस्मत पे इतराने वाली बात ज़रा सूट नहीं करती क्योंकि ये ऐसे पेशे से तआल्लुक़ रखते हैं जहाँ लड़के और लड़कियों के बीच का अनुपात 1 : 24 का है. एक नवयौवना इनसे सटकर खड़ी है. सिद्धार्थ बाबू ने शालीनता से उसको अधिकतम संभव स्थान दे रखा है. पर भीड़ के धक्के और लोगों के जिस्म का दबाव अब उनके पैरों को अस्थिर कर रहा है. अपने आईपैड को सँभालते औए कानों से हैडफ़ोन उतारते उनका पैर यौवना के जूतों पर पड़ जाता है. उधर से एक सिसकारी निकली और इधर सिद्धार्थ बाबू के मुँह बड्डड्डा वाला सॉरी. दोनों ने एक दूसरे की मज़बूरी समझी, आखों में मुस्कुराये और वापस पहले जैसी मुद्रा में खड़े हो गए. इस बार सटकर खड़े होने में भी दोनों तरफ निश्चिन्तता के भाव हैं. उसके बाएं हाथ के करीने से कटे नाख़ून और उस पर मैजेंटा कलर का नेलपेंट सिद्धार्थ बाबू को बहुत मोहक लगा.
एक उद्घोषणा होती है-----

"यह राजीव चौक स्टेशन है, दरवाज़े बाईं तरफ खुलेंगे"

अब सबको उतरने की जल्दी है. वो तीन युवतियां और सिद्धार्थ बाबू समेत दोनों देसी ब्वॉयज़ उतरने के लिए दाहिने दरवाज़े से बाएं दरवाज़े की तरफ आते हैं. सिद्धार्थ बाबू उस तीसरी युवती को सुगम निकास देने के लिए उसके आगे आ जाते हैं और भीड़ के बीच रास्ता बनाते हुए उतरते हैं. प्लेटफार्म तक पहुँचते पहुँचते सिद्धार्थ बाबू के पीछे चल रही तीसरी युवती फुसफुसाती है------ 'रॉस्कल' ! वह चौंकते हैं और आगे जाकर पीछे देखने के लिए मुड़ते हैं. लड़की अब येलो लाइन की ट्रेन लेने अंडर ग्राउंड सीढ़ियों की तरफ जा रही है. दोनों देसी ब्वॉयज़ बेशर्मी से किसी बात पे हँस रहे हैं. वह तीनो गेट नं 7 की ओर से कनॉट प्लेस के लिए बाहर निकल रहे हैं. आगे आगे दांत निपोरते देसी डूडस और पीछे सिद्धार्थ बाबू .

"भैंण की ** के तरबूज़ पे हाथ फेर दिया भाई"
एक देसी ब्वॉय अपनी महानतम उपलब्धि की बेशर्म मुनादी कर रहा है. दूसरा उससे बड़ी बेशर्मी से गर्व करता है----
" भाई मेने तो 20 मिंट जम के मज़े किये"

अचानक सिद्धार्थ बाबू को याद आता है की उनकी बहन इस वक़्त गुड़गाँव स्थित अपने ऑफिस से निकालकर मेट्रो ले रही होगी. एकदम वह बहुत थके से महसूस करने लगे. पैरों में जैसे जान नहीं रही. ट्रेन के अंदर के सारे दृश्य उनकी आँखों पर चलचित्र बना रहे हैं. स्टेशन के  चारों तरफ उठते शोर में उन्हें सिर्फ एक ही शब्द सुनाई देता है-----
" बहन...बहन...बहन....भैण..भैन

© Siddharth Priyadarshi
     

Friday 17 June 2016

मुकम्म़ल इश्क़ का किस्सा बना दो मेरे माज़ी को
फरेबी लोग आकर चार बाते जोड़ जाते हैं
मैं बीते हर कदम आँखों में अपना रब छुपाता हूँ
वो ज़ालिम बुतशिक़न शादाब बुत भी तोड़ जाते हैं

© Siddharth Priyadarshi

Saturday 28 May 2016

शिमला डायरी से एक पुरानी ग़जल--

सोच रहे हैं तेरे गम को सजदे कर मेहमान करें
आँखों से कर लें मक्कारी,अश्कों का सामान करें

पश्मीने की चादर जैसा ख़ल्क मिलेगा ऐ साहिब !
हम तो लफ्ज लिए बैठें हैं सुनने का फरमान करें

वक्त खड़ा फिर दरवाजे पर माँग रहा है हाथ मेरा
विदा में तेरा हाथ उठे तो चलने का अरमान करें

कुछ जायज़ नाजायज़ वजहें भारी हैं इन कंधों पर
फिर भी कोशिश कर के लो तेरा जीना आसान करें
कैसे, किसकी बाँह टटोलें रिश्तों के अंधियारे में
नज्र से रिसते लहू को रोकें नजर में रोशनदान करें

© Siddharth Priyadarshi
    

Saturday 21 May 2016

जलवा-ए-गुल, ज़ौक-ए-तमाशा आज रहने दे ख़ुदा
इसकी नहीं दरकार अब तो यार जलवागार है

रात भर जगते रहे आँखों में बाँधे टकटकी
बह चला चौथे पहर उम्मीद का अशआर है

सामने बेटा पड़ा है मुफलिसी को ओढ़कर
और कहते लोग बूढ़ा आजकल बीमार है

तुम मुझे मुजरिम बताकर साथ लाना जुर्म मेरा
रंजिशाना कह न दूँ यह कातिलों का यार है

इश्क़ की पहली ही सीढ़ी पर गिरे हो माहताब
दम तो फूलेगा समंदर में यही तो प्यार है

एक नए तेवर में हैं हर्फों की ये सरगोशियां
रूक्न की दुश्वारियों में अक्स शहरयार है

© Siddharth Priyadarshi
    

Sunday 15 May 2016

पुराने दर्द की देशी दवाई
वो बढ़ता मर्ज और ये बेहयाई
सितम के इंतेहा की रात है ये
किसी का जुर्म औ' मेरी सफाई

कलम कागज़ में छिड़ती ये लड़ाई
मेरी ग़जलें भी देती हैं दुहाई
समझ लो आज तक जिंदा है दिल में
किसी की राख से भी आशनाई

सिफर जोडूँ तो बनता है दहाई
इसी की तर्ज पर दूँ रहनुमाई
तुम्हारी रूह के ताखों पे रख कर होंठ अपने
लिखूँ खुसरो की वह ‘दीनी' रूबाई

 © Siddharth Priyadarshi

Thursday 5 May 2016

कागज पर कुछ उल्टे तिरछे
काले अक्षर टाँक लो
फिर बेहूदे विम्बों और चलचित्रों से प्रतिविम्बों की
बासी धूल फाँक लो
स्त्री नाभि की गहराई से
अपनी गलीच मानसिकता का चाँद उगा दो
या नोची गई किसी बेटी का जिस्म
शब्दों की मीठी चाशनी में डुबा दो
प्रेम को बेशक दे दो
जिस्मफरोशी का नाम
माँ की ममता को भी लिख दो
दबा हुआ स्त्री प्रतिमान
किसी हल्कू की व्यथा कथा पर
प्रेमचंद को सामंती कह दो
शिव-पार्वती आख्यान को भी
भगवा आतंकी कह दो
पर शेष सुकोमल बनी रहेगी
तुलसी सूर कबीर की वाणी
महाप्राण हो या प्रसाद हो
धन्य रहेगी वीणापाणी
भ्रमित विमर्शों के गलियारे
इस वमन में कुंठित मिलें जहाँ
वहीं सोचना इस कविता में
काव्य तत्व है शेष कहाँ !

अथ श्री ‘फैशनेबल नई कविता' प्रथम अध्याय: समाप्तम्.....

© Siddharth Priyadarshi
   

Sunday 1 May 2016

एक कहानी यह भी  

पैंतालिस डिग्री सेल्सियस की झुलसाने वाली गरमी, सिर पर जलता हुआ एक करोड डिग्री सेल्सियस का सूरज, सूखे प्यासे और फटे होंठ, पैरों में टूटी चप्पलें, चौवालीस पैबंद लगी कमीज़ और सिर पर मैला सा अंगौछा !!!
बेचारा गरीब रिक्शेवाला धौंकनी की तरह चलती साँसे थामकर अपने सूखे होठों को जीभ से तर करता है.
--टैगोर टाउन चलोगे ?
--चलेंगे बाबूजी
--िकतना लोगे ?
--चालीस रूपया पड़ेगा बाबूजी
--का बकैती है में ! टैगोर टाउन का चालीस रूपया होता है !
--घाम बहुत है भइया. सगरी देह झुलसाय जाती है.
--अमे रहन देव. एतना भी घाम नही ना. (मैं मन ही मन कुदरत के कहर को कोसता हुआ रिक्शेवाले में जमकर मोल-भाव करने के मूड में हूँ)
--तीस देंगे. ढ़लाने-ढ़लान तो हय पूरे रास्ते
--पैंतीस दै देना भैया
-- ना ना..रेट न िबगाड़ो. तीस से ज्यादा न देंगे
रिक्शेवाले ने कातर निगाहों से मुझे देखा. आसपास तीन रिक्शे वाले और खड़े हैं . मतलब कि बैकफुट पर वही है, हमें पूरा इत्मीनान है. इस भयानक दोपहरी में पूरा शहर घरों में बंद है. सवारियाँ तो हैं नहीं. कोई न कोई तो जाएगा ही तीस रूपए में !

-- ठीक है भैया..चिलए.
 मैं विजयी मुस्कान लिए दोस्त की एसी गाड़ी से उतरता हूँ. उतरते ही लगा जैसे पूरे बदन में आग मली जा रही हो. मैं फटाफट आँखों पर काला चश्मा चढ़ाता हूँ जो किसी महंगे स्टोर से २००० रू का खरीदा हुआ था, बिना मोलभाव किए. चेहरे को गीले तौलिए से बाँधता हूँ. पास की दुकान से गला तर करने और लू से बचने के लिए स्प्राइट की आधा लीटर की बोतल खरीदता हूँ.
-- कस में, ए पे तो पैंतीस रूपया िलखा है तो चालीस काहे माँग रहे हो ? मैने पूरी ठसक से दुकानदार से शिकायत की..
-- बकैती न झाड़ो, कम्पनी हमका ठंडा करै क पइसा नय देत...बर्फ लगावा है, ओका दाम कौन देइगा ? उपर से सप्लाई भी कम है. लेना है तो लो नहीं तो फूटो इहाँ से. दुकानदार ने एक मिनट में मेरी न्यायप्रियता सड़क पर बिखेर दी.

मौके की नज़ाकत देख मैने दुकानदार को चुपचाप चालीस रूपए दिए, अपना दोगलापन वापस अपनी जेब में रखा, अभिजात्यपन के चश्मे को ठीक किया और रिक्शे पर जा बैठा. आदमी के द्वारा आदमी को खींचे जाने का यह दृश्य मुझे हरगिज आहत नहीं करेगा. रिक्शे वाला कमर उठाकर मुझ पचहत्तर  किलो की काया को खींचे जा रहा है. मैं उससे तेज चलने को कहता हूँ. वह पसीने से तर चेहरे को पोंछता फीकी मुस्कान लिए मुझे देखता है. इधर मैं मन ही मन भुनभुना रहा हूँ--किस मरियल को पकड़ लिया. देर करा देगा ये. धूप में झुलस ही जाऊंगा आज तो. बहुत काम है. पहले तो घर जाकर मजदूरों की दुर्दशा पर धाँसू लेख पोस्ट करना है फेसबुक पर. खूब लाईक्स उठाने हैं आज. रिक्शे पर बैठे-बैठे उस लेख की रूप रेखा बनाने की कोशिश करता हूँ-- छोड़ो यार, घर जाकर आराम से एसी चलाकर बैठैंगे तब सोचेंगे. मैं शीतल पेय की चार घूँट हलक के नीचे उतारता हूं. पैडल मारने वाले का खून भाप बनकर उड़ रहा है पर मुझे ठंडक मिलती जा रही है...

© Siddharth Priyadarshi