Sunday 1 May 2016

एक कहानी यह भी  

पैंतालिस डिग्री सेल्सियस की झुलसाने वाली गरमी, सिर पर जलता हुआ एक करोड डिग्री सेल्सियस का सूरज, सूखे प्यासे और फटे होंठ, पैरों में टूटी चप्पलें, चौवालीस पैबंद लगी कमीज़ और सिर पर मैला सा अंगौछा !!!
बेचारा गरीब रिक्शेवाला धौंकनी की तरह चलती साँसे थामकर अपने सूखे होठों को जीभ से तर करता है.
--टैगोर टाउन चलोगे ?
--चलेंगे बाबूजी
--िकतना लोगे ?
--चालीस रूपया पड़ेगा बाबूजी
--का बकैती है में ! टैगोर टाउन का चालीस रूपया होता है !
--घाम बहुत है भइया. सगरी देह झुलसाय जाती है.
--अमे रहन देव. एतना भी घाम नही ना. (मैं मन ही मन कुदरत के कहर को कोसता हुआ रिक्शेवाले में जमकर मोल-भाव करने के मूड में हूँ)
--तीस देंगे. ढ़लाने-ढ़लान तो हय पूरे रास्ते
--पैंतीस दै देना भैया
-- ना ना..रेट न िबगाड़ो. तीस से ज्यादा न देंगे
रिक्शेवाले ने कातर निगाहों से मुझे देखा. आसपास तीन रिक्शे वाले और खड़े हैं . मतलब कि बैकफुट पर वही है, हमें पूरा इत्मीनान है. इस भयानक दोपहरी में पूरा शहर घरों में बंद है. सवारियाँ तो हैं नहीं. कोई न कोई तो जाएगा ही तीस रूपए में !

-- ठीक है भैया..चिलए.
 मैं विजयी मुस्कान लिए दोस्त की एसी गाड़ी से उतरता हूँ. उतरते ही लगा जैसे पूरे बदन में आग मली जा रही हो. मैं फटाफट आँखों पर काला चश्मा चढ़ाता हूँ जो किसी महंगे स्टोर से २००० रू का खरीदा हुआ था, बिना मोलभाव किए. चेहरे को गीले तौलिए से बाँधता हूँ. पास की दुकान से गला तर करने और लू से बचने के लिए स्प्राइट की आधा लीटर की बोतल खरीदता हूँ.
-- कस में, ए पे तो पैंतीस रूपया िलखा है तो चालीस काहे माँग रहे हो ? मैने पूरी ठसक से दुकानदार से शिकायत की..
-- बकैती न झाड़ो, कम्पनी हमका ठंडा करै क पइसा नय देत...बर्फ लगावा है, ओका दाम कौन देइगा ? उपर से सप्लाई भी कम है. लेना है तो लो नहीं तो फूटो इहाँ से. दुकानदार ने एक मिनट में मेरी न्यायप्रियता सड़क पर बिखेर दी.

मौके की नज़ाकत देख मैने दुकानदार को चुपचाप चालीस रूपए दिए, अपना दोगलापन वापस अपनी जेब में रखा, अभिजात्यपन के चश्मे को ठीक किया और रिक्शे पर जा बैठा. आदमी के द्वारा आदमी को खींचे जाने का यह दृश्य मुझे हरगिज आहत नहीं करेगा. रिक्शे वाला कमर उठाकर मुझ पचहत्तर  किलो की काया को खींचे जा रहा है. मैं उससे तेज चलने को कहता हूँ. वह पसीने से तर चेहरे को पोंछता फीकी मुस्कान लिए मुझे देखता है. इधर मैं मन ही मन भुनभुना रहा हूँ--किस मरियल को पकड़ लिया. देर करा देगा ये. धूप में झुलस ही जाऊंगा आज तो. बहुत काम है. पहले तो घर जाकर मजदूरों की दुर्दशा पर धाँसू लेख पोस्ट करना है फेसबुक पर. खूब लाईक्स उठाने हैं आज. रिक्शे पर बैठे-बैठे उस लेख की रूप रेखा बनाने की कोशिश करता हूँ-- छोड़ो यार, घर जाकर आराम से एसी चलाकर बैठैंगे तब सोचेंगे. मैं शीतल पेय की चार घूँट हलक के नीचे उतारता हूं. पैडल मारने वाले का खून भाप बनकर उड़ रहा है पर मुझे ठंडक मिलती जा रही है...

© Siddharth Priyadarshi

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