Saturday 28 May 2016

शिमला डायरी से एक पुरानी ग़जल--

सोच रहे हैं तेरे गम को सजदे कर मेहमान करें
आँखों से कर लें मक्कारी,अश्कों का सामान करें

पश्मीने की चादर जैसा ख़ल्क मिलेगा ऐ साहिब !
हम तो लफ्ज लिए बैठें हैं सुनने का फरमान करें

वक्त खड़ा फिर दरवाजे पर माँग रहा है हाथ मेरा
विदा में तेरा हाथ उठे तो चलने का अरमान करें

कुछ जायज़ नाजायज़ वजहें भारी हैं इन कंधों पर
फिर भी कोशिश कर के लो तेरा जीना आसान करें
कैसे, किसकी बाँह टटोलें रिश्तों के अंधियारे में
नज्र से रिसते लहू को रोकें नजर में रोशनदान करें

© Siddharth Priyadarshi
    

Saturday 21 May 2016

जलवा-ए-गुल, ज़ौक-ए-तमाशा आज रहने दे ख़ुदा
इसकी नहीं दरकार अब तो यार जलवागार है

रात भर जगते रहे आँखों में बाँधे टकटकी
बह चला चौथे पहर उम्मीद का अशआर है

सामने बेटा पड़ा है मुफलिसी को ओढ़कर
और कहते लोग बूढ़ा आजकल बीमार है

तुम मुझे मुजरिम बताकर साथ लाना जुर्म मेरा
रंजिशाना कह न दूँ यह कातिलों का यार है

इश्क़ की पहली ही सीढ़ी पर गिरे हो माहताब
दम तो फूलेगा समंदर में यही तो प्यार है

एक नए तेवर में हैं हर्फों की ये सरगोशियां
रूक्न की दुश्वारियों में अक्स शहरयार है

© Siddharth Priyadarshi
    

Sunday 15 May 2016

पुराने दर्द की देशी दवाई
वो बढ़ता मर्ज और ये बेहयाई
सितम के इंतेहा की रात है ये
किसी का जुर्म औ' मेरी सफाई

कलम कागज़ में छिड़ती ये लड़ाई
मेरी ग़जलें भी देती हैं दुहाई
समझ लो आज तक जिंदा है दिल में
किसी की राख से भी आशनाई

सिफर जोडूँ तो बनता है दहाई
इसी की तर्ज पर दूँ रहनुमाई
तुम्हारी रूह के ताखों पे रख कर होंठ अपने
लिखूँ खुसरो की वह ‘दीनी' रूबाई

 © Siddharth Priyadarshi

Thursday 5 May 2016

कागज पर कुछ उल्टे तिरछे
काले अक्षर टाँक लो
फिर बेहूदे विम्बों और चलचित्रों से प्रतिविम्बों की
बासी धूल फाँक लो
स्त्री नाभि की गहराई से
अपनी गलीच मानसिकता का चाँद उगा दो
या नोची गई किसी बेटी का जिस्म
शब्दों की मीठी चाशनी में डुबा दो
प्रेम को बेशक दे दो
जिस्मफरोशी का नाम
माँ की ममता को भी लिख दो
दबा हुआ स्त्री प्रतिमान
किसी हल्कू की व्यथा कथा पर
प्रेमचंद को सामंती कह दो
शिव-पार्वती आख्यान को भी
भगवा आतंकी कह दो
पर शेष सुकोमल बनी रहेगी
तुलसी सूर कबीर की वाणी
महाप्राण हो या प्रसाद हो
धन्य रहेगी वीणापाणी
भ्रमित विमर्शों के गलियारे
इस वमन में कुंठित मिलें जहाँ
वहीं सोचना इस कविता में
काव्य तत्व है शेष कहाँ !

अथ श्री ‘फैशनेबल नई कविता' प्रथम अध्याय: समाप्तम्.....

© Siddharth Priyadarshi
   

Sunday 1 May 2016

एक कहानी यह भी  

पैंतालिस डिग्री सेल्सियस की झुलसाने वाली गरमी, सिर पर जलता हुआ एक करोड डिग्री सेल्सियस का सूरज, सूखे प्यासे और फटे होंठ, पैरों में टूटी चप्पलें, चौवालीस पैबंद लगी कमीज़ और सिर पर मैला सा अंगौछा !!!
बेचारा गरीब रिक्शेवाला धौंकनी की तरह चलती साँसे थामकर अपने सूखे होठों को जीभ से तर करता है.
--टैगोर टाउन चलोगे ?
--चलेंगे बाबूजी
--िकतना लोगे ?
--चालीस रूपया पड़ेगा बाबूजी
--का बकैती है में ! टैगोर टाउन का चालीस रूपया होता है !
--घाम बहुत है भइया. सगरी देह झुलसाय जाती है.
--अमे रहन देव. एतना भी घाम नही ना. (मैं मन ही मन कुदरत के कहर को कोसता हुआ रिक्शेवाले में जमकर मोल-भाव करने के मूड में हूँ)
--तीस देंगे. ढ़लाने-ढ़लान तो हय पूरे रास्ते
--पैंतीस दै देना भैया
-- ना ना..रेट न िबगाड़ो. तीस से ज्यादा न देंगे
रिक्शेवाले ने कातर निगाहों से मुझे देखा. आसपास तीन रिक्शे वाले और खड़े हैं . मतलब कि बैकफुट पर वही है, हमें पूरा इत्मीनान है. इस भयानक दोपहरी में पूरा शहर घरों में बंद है. सवारियाँ तो हैं नहीं. कोई न कोई तो जाएगा ही तीस रूपए में !

-- ठीक है भैया..चिलए.
 मैं विजयी मुस्कान लिए दोस्त की एसी गाड़ी से उतरता हूँ. उतरते ही लगा जैसे पूरे बदन में आग मली जा रही हो. मैं फटाफट आँखों पर काला चश्मा चढ़ाता हूँ जो किसी महंगे स्टोर से २००० रू का खरीदा हुआ था, बिना मोलभाव किए. चेहरे को गीले तौलिए से बाँधता हूँ. पास की दुकान से गला तर करने और लू से बचने के लिए स्प्राइट की आधा लीटर की बोतल खरीदता हूँ.
-- कस में, ए पे तो पैंतीस रूपया िलखा है तो चालीस काहे माँग रहे हो ? मैने पूरी ठसक से दुकानदार से शिकायत की..
-- बकैती न झाड़ो, कम्पनी हमका ठंडा करै क पइसा नय देत...बर्फ लगावा है, ओका दाम कौन देइगा ? उपर से सप्लाई भी कम है. लेना है तो लो नहीं तो फूटो इहाँ से. दुकानदार ने एक मिनट में मेरी न्यायप्रियता सड़क पर बिखेर दी.

मौके की नज़ाकत देख मैने दुकानदार को चुपचाप चालीस रूपए दिए, अपना दोगलापन वापस अपनी जेब में रखा, अभिजात्यपन के चश्मे को ठीक किया और रिक्शे पर जा बैठा. आदमी के द्वारा आदमी को खींचे जाने का यह दृश्य मुझे हरगिज आहत नहीं करेगा. रिक्शे वाला कमर उठाकर मुझ पचहत्तर  किलो की काया को खींचे जा रहा है. मैं उससे तेज चलने को कहता हूँ. वह पसीने से तर चेहरे को पोंछता फीकी मुस्कान लिए मुझे देखता है. इधर मैं मन ही मन भुनभुना रहा हूँ--किस मरियल को पकड़ लिया. देर करा देगा ये. धूप में झुलस ही जाऊंगा आज तो. बहुत काम है. पहले तो घर जाकर मजदूरों की दुर्दशा पर धाँसू लेख पोस्ट करना है फेसबुक पर. खूब लाईक्स उठाने हैं आज. रिक्शे पर बैठे-बैठे उस लेख की रूप रेखा बनाने की कोशिश करता हूँ-- छोड़ो यार, घर जाकर आराम से एसी चलाकर बैठैंगे तब सोचेंगे. मैं शीतल पेय की चार घूँट हलक के नीचे उतारता हूं. पैडल मारने वाले का खून भाप बनकर उड़ रहा है पर मुझे ठंडक मिलती जा रही है...

© Siddharth Priyadarshi