Sunday 15 May 2016

पुराने दर्द की देशी दवाई
वो बढ़ता मर्ज और ये बेहयाई
सितम के इंतेहा की रात है ये
किसी का जुर्म औ' मेरी सफाई

कलम कागज़ में छिड़ती ये लड़ाई
मेरी ग़जलें भी देती हैं दुहाई
समझ लो आज तक जिंदा है दिल में
किसी की राख से भी आशनाई

सिफर जोडूँ तो बनता है दहाई
इसी की तर्ज पर दूँ रहनुमाई
तुम्हारी रूह के ताखों पे रख कर होंठ अपने
लिखूँ खुसरो की वह ‘दीनी' रूबाई

 © Siddharth Priyadarshi

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